लखनऊ हज़रतगंज स्थित जीपीओ गांधी प्रतिमा पर उस दिन माहौल केवल विरोध प्रदर्शन का नहीं बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की सामूहिक हुंकार का था। पत्रकार सुशील अवस्थी राजन पर हुए हमले के विरोध में जुटे सैकड़ों पत्रकारों ने न केवल अपने साथी के लिए न्याय माँगा, बल्कि पुलिस विभाग के निकम्मेपन को भी सरेआम बेनकाब कर दिया।
गांधी प्रतिमा से शुरू हुआ विशाल धरना और पैदल मार्च सीधे राजभवन पहुँचा। हर कदम पर एक ही नारा गूँज रहा था, पत्रकार एकता ज़िंदाबाद! यह केवल एक नारा नहीं था, बल्कि उन सभी ताकतों को दिया गया सीधा जवाब था जो कलम की आवाज़ को दबाने की हिमाकत करते हैं।
प्रदर्शन का सबसे बड़ा फोकस पुलिसिया व्यवहार पर गहरा तंज था। पत्रकारों ने सीधे तौर पर सवाल उठाया कि पत्रकार पर हमला करने वालों में से केवल एक आरोपी की गिरफ्तारी क्यों हुई?
आक्रोशित पत्रकारों की तख्तियों पर लिखा था, हमलावरों को खुली छूट, पुलिस क्यों मजबूर? और एक गिरफ्तारी, बाकी सब फ्री? क्या यही है उत्तर प्रदेश की तेज़ कानून-व्यवस्था?
इस पूरे घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि जब तक ऊपर से दबाव न आए, पुलिस विभाग ऐसे मामलों में जानबूझकर सुस्त पड़ जाता है। इस प्रदर्शन के माध्यम से पत्रकारों ने स्पष्ट संदेश दिया कि वे अपने साथी पर हुए हमले को केवल एक लॉ एंड ऑर्डर की घटना मानकर भूलने वाले नहीं हैं, बल्कि यह उनकी सामूहिक सुरक्षा का मुद्दा है।
सैकड़ों की संख्या में एकजुट हुए पत्रकारों ने साबित कर दिया कि पत्रकारिता की आवाज़ को दबाना नामुमकिन है। यह प्रदर्शन किसी भावनात्मक इमोशन का चंदा मात्र नहीं था, बल्कि अपनी ताकत की प्रतिक्रिया थी।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने मंच से कहा, हमारी कलम बिकती नहीं और यह एकजुटता दिखाती है कि यह झुकती भी नहीं, हम चुपचाप नहीं बैठेंगे जब तक सभी हमलावरों को सलाखों के पीछे नहीं भेजा जाता।
जीपीओ से मुख्यमंत्री आवास तक का पैदल मार्च केवल विरोध का जरिया नहीं था, बल्कि चौथे स्तंभ की सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन था, एक ऐसी शक्ति जो अपनी सुरक्षा खुद सुनिश्चित करने और न्याय दिलवाने के लिए सड़कों पर उतरने का साहस रखती है।
न्याय की यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक अंतिम अपराधी कानून के शिकंजे में नहीं आ जाता।







